शरीर ही ब्रहमाण्ड-Shareer he Brahmand...

हमने हमारें पिछले लेखों में ग्रह, कुण्डली, भविष्य, धार्मिक कथाओं, हिन्दू सनातनी मंदिरो, पूजन विधि, समय समय पर आने वाले त्यौहारों के मुहूर्त और भगवान से सम्बंधित आरतियों अनेक प्रकार के विषयों से आपको अवगत करवाया आज हमारा विषय कुछ अलग हटकर हैं किन्तु ये भी हिन्दू मान्यताओं को स्टिक रूप से उजागर करता हैं ये विषय हमारे शरीर से सम्बंधित हैं जोकि एक ब्रह्माण्ड कि ही तरह हैं।

आज हम हमारें लेख शरीर ही ब्रह्माण्ड-Shareer he Brahmand के माध्यम से जानेंगे कि- ह्रदय केन्द्र से समान रूप से चारों ओर प्रकाशपुंज फैलाता रहता हैं। अत: हृदय समत्व योग में समाहित माना गया हैं। हृदय से शरीर तक और शरीर के बाहरी विषयों तक संसार स्थान कहलाता हैं। इन्द्रिय शरीर स्थान से संसार स्थान के मध्य आसक्त होना ही मोह हैं। संसार स्थान से हटना द्वेष हैं, शरीर में मग्न रहना राग हैं और शरीर से हटना द्वेष हैं।

Shareer he Brahmand

शरीर ही ब्रहमाण्ड-Shareer he Brahmand...

Shareer he Brahmand: पुराणों-अनुसार गीता ही आत्मा का शास्त्र हैं। गीता को योग शास्त्र भी कहा जाता हैं, अत: ज्ञान-कर्म-भक्ति-बुध्दि योगों की ही बात करता हैं। यदि हम मानें कि क्या गीता से पहले योग नहीं थे ? तो गीता का अलग से महत्व क्या हैं ? यदि इस क्रम में हम आगें बढ़े तो हमें ज्ञात होगा कि इसमें बहुत विशाल अन्तर हैं। ज्ञान-कर्म-भक्ति-योग क्रमशः बुध्दि-शरीर-मन से जुड़े योग हैं ये इनको साधने के योग हैं। जैसाकि- पुरूषार्थ-धर्म-अर्थ-काम भी बुध्दि शरीर मन के ही विषय हैं इन्हें यूँ ही नकारा नहीं जा सकता। ये सब भी कर्मक्षेत्र हैं, आत्मा का क्षेत्र भिन्न अलग हैं, ये "ब्रह्म के शुध्द ज्ञान का विषय हैं और गीता एक क्रम से ये बात स्पष्ट करती हैं"। 

1. गीता के अनुसार शरीर ही ब्रह्माण्ड According to the Geeta the body is the universe:-

Shareer he Brahmand: गीता अनुसार- जीवन का केंद्र मन हैं जो इच्छाओं का केंद्र हैं, इच्छा से ही जीवन की गतिविधियाँ शुरू होती हैं किन्तु मन बड़ा चंचल हैं प्रवाह से बहता रहता हैं इसको नियंत्रित रखने के लियें कृष्ण! कहते हैं कि- "असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्मते"।। अर्थात चंचल मन अभ्यास और वैराग्य से वश में हो सकता हैं नहीं तो हवा को बांधने की तरह कठिन हैं मन के अभ्यास के लियें श्रीकृष्ण! ने एक क्रम साधना का मार्ग दिया हैं। श्रीकृष्ण! "मन और बुध्दि मुझे में लगा तू मुझे में ही निवास करेगा और यदि समर्थ नहीं हैं तो अभ्यास द्वारा मुझे तक पहुंचने का प्रयास कर और यदि अभ्यास में भी असमर्थ हैं तो मेरे निर्मित कर्म कर"। अभ्यास स्थूल क्रिया का अंग हैं निमित्त होकर कर्म करना भक्ति मार्ग हैं। इसमें ज्ञान भी हैं और कर्म भी हैं और यदि ये सब भी नहीं करता तो मन बुध्दि पर नियंत्रण करके "कर्मों का फल त्याग" कर दे यहीं समर्पण भाव का चरम हैं। 

Shareer he Brahmand: अभ्यास का आरम्भ शरीर को साधने से होता हैं। अस्वस्थ शरीर में "श्वास-प्रश्वास" "खांस" "धांस" "उबास" जैसे अनेक प्रकार के व्यवधान आतें हैं। छींक, सिरदर्द, मल-मूत्र त्याग का दबाव आदि अनेक कर्म शरीर को स्थिर नहीं रहने देते हैं। इसको स्थिर रखने के लियें "यम-नियम-आसन-प्राणायाम" के अभ्यास करायें जातें हैं। 1. प्राणायाम का अभ्यास शरीर और मन दोनों के नियंत्रण में काम आता हैं। श्वास-प्रश्वास और प्राणायाम एक नहीं हैं, प्राणायाम जीवन हैं, प्राणों के घर्षण से ही वैश्वानर अग्नि प्रतिष्ठित रहता हैं, ताप नियंत्रित होता हैं, मन में प्राकृत कामनाओं का उदय होता हैं। तंत्र क्षेत्र में प्राणायाम से जुड़ी अनेक क्रियायें सूक्ष्म जगत में प्रवेश का द्वार खोलती हैं, विचारों पर अंकुश लगता हैं। 

Shareer he Brahmand: प्राण और मन साथ रहते हैं मन यदि सृष्टि से जुड़ा रहना चाहता हैं तो प्राण शरीर में गतिमान रहता हैं, मन के विचार जीव-जगत से जुड़े रहते हैं। भस्त्रा-कपालभाति जैसी क्रियाओं की सहायता से मन ऊपर उठता हैं। मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ता हैं। आनन्द खोजने लगता हैं यह बात कहने में आसान लगती हैं करना सहज नहीं हैं। अभ्यास स्थूल जगत का प्रयास मात्र हैं क्योंकि आत्मा की साधना में प्रयास का निषेध हैं। प्रयास का अर्थ हैं- आप अभी बाहर ही बैठे हैं स्वयं की क्रियाओं को देख रहें हैं। 2. ध्यान का अर्थ- स्थूल को छोड़ना और सूक्ष्म में प्रवेश करना इसका भी अभ्यास होता हैं।

"समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः । संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वंदिशश्चानवलोकयन्"।। (6.13) "स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चौवान्तरे भ्रुवोः। प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ"।।(5.27) "यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः। विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः"।। (5.28)

Shareer he Brahmand: अर्थात् काया सिर-गले को समान रूप अचल-स्थिर करके दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर टिका लें, चित्त को केन्द्रित करें- आज्ञाचक्र पर- भू-मध्य केन्द्र पर बाहर के विषयों का चिन्तन छोड़कर मन को वश में करके नेत्रों की दृष्टि भृकुटी मध्य करके, श्वास मन्द-स्थिर करके, जो मुनि शान्त हैं, वह सदा ही मुक्त हैं। कितनी स्पष्ट व्याख्या हैं- नेत्रों को नासिका के अग्र भाग पर और चित्त को भू-मध्य पर टिकाना हैं। भू-मध्य को तीसरा  नेत्र कहा हैं। दोनों नेत्र नीचे देखते-देखते बन्द हो जाएंगे। देखना ठहर जाएगा तब तीसरा नेत्र खुलेगा। वह ऊपर देखता हैं सूक्ष्म को देखता हैं। आत्मा स्थूल नेत्रों से दिखाई नहीं देता प्राणायाम के द्वारा बाहर की हवा बाहर ही रहे नेत्र अपलक भ्रूमध्य में टिके रहें। प्राण और अपान समान रहें, नाक के भीतर ही वायु संचरण करे, इससे सारी इन्द्रियां संयत रहेंगी, बुद्धि और मन संयत हो जायेंगे यहीं जीवनमुक्ति हैं। {श्या.च. लाहिड़ी}। शरीर की स्थिति-मेरुदण्ड-गला-सिर सीधा रहता हैं। गले को कुछ दबाने नीचे झुकाने से शरीर का कम्पन ठहर जाता हैं, दृष्टि भू-मध्य में टिक जाती हैं। नेत्र मूंदकर चित्त को आज्ञाचक्र में रखने से मन आत्मा में समाहित हो जाता हैं। आधे खुले नेत्रों से कूटस्थ का ध्यान करने पर शून्य भाव पैदा हो जाता हैं।

Shareer he Brahmand: इस बात को यूं समझें- बाहरी विषय ही इन्द्रियों द्वारा प्रवेश करते हैं। ये ही सुख-दुःख का कारण बनते हैं इनको मन में प्रविष्ट न होने देना पहली बात हैं। आंख यद्यपि भृकुटियों के मध्य में ही रहती हैं, किन्तु दोनों नेत्रों की किरणें भिन्न-भिन्न दिशा से रूप ग्रहण करती हैं। दोनों को एक ही सीध में लाना ही भूमध्य दृष्टि हैं। नासिकाग्र भाग पर दोनों ही रश्मियों को मिला देने से चित्त स्थिर हो जाता हैं। प्राणवृत्ति सदा ऊपर की ओर जाया करती हैं, अपान वृत्ति नीचे की ओर दोनों प्राण ही शरीर धारण के मुख्य हेतु हैं। दोनों की विशेष शक्ति से भीतर का वायु नाक से बाहर- भीतर जाता-आता हैं। प्राणायाम द्वारा दोनों की गति समान "कुंभक" हो जाती हैं। इन उपायों से बुद्धि-मन-इन्द्रियों की वृत्तियां ठहर जाती हैं, कामनाएं ठहर जाती हैं। आत्मा अपने स्वरूप में महन्मन में स्थिर हो जाता हैं।

Shareer he Brahmand: हमारे दोनों भाग-स्थूल शरीर और अदृश्य आत्मा का योग किस प्रकार संभव होता हैं। मन की नीचे की दिशा में जाने वाले इन्द्रिय मन और सर्वेन्द्रिय मन की गतियों पर नियंत्रण करने पर ही बाहरी जगत की ओर की गति शून्यता को प्राप्त होती हैं। दूसरी ओर गति करने के लियें यह पहली आवश्यकता हैं आंखों का बाहर देखना तक बन्द हो गया श्वास-प्रश्वास ठहर-सा गया। प्राणों की गति से मन दूसरी ओर बढ़ने लगा यही मुक्ति साक्षी आनन्द-विज्ञान-मन का मार्ग हैं। शरीर क्षरणशील हैं, आत्मा शाश्वत हैं शरीर के रहते हुए ही आत्मा की ओर गति संभव हैं मुक्ति संभव हैं। हृदय-केन्द्र से चारों ओर समान रूप से आत्मरश्मियां फैलती रहती हैं-प्रकाश पुंज के समान अतः हृदय समत्व योग में समाहित माना गया हैं। हृदय से शरीर तक शरीर स्थान तथा शरीर स्थान से बाहरी विषयों तक संसार स्थान कहलाता हैं। शरीर {इन्द्रिय} स्थान से संसार स्थान के मध्य आसक्त होना मोह हैं। संसार स्थान से हटना द्वेष हैं। शरीर में मग्न रहना राग हैं, हटना द्वेष हैं हृदय स्थान में प्रतिष्ठित रहना ही राग- द्वेष-मोह तीनों का अभाव हैं। यही वैराग्य हैं समत्व योग हैं अभ्यास से कर्म क्षेत्र को छोड़कर वैराग्य में प्रतिष्ठित होना ही गीता का बुद्धियोग हैं।

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FAQ-

1. क्या ब्रह्मांड एक बड़ा दिमाग हैं ?

हां ब्रह्मांड एक विशाल मानव मस्तिष्क के समान हैं, वैज्ञानिकों ने ऐसा पाया हैं। एक नयें अध्ययन में वैज्ञानिकों ने अस्तित्व में दो सबसे जटिल प्रणालियों के बीच अंतर और समानता की जांच की थी। हालांकि पूरी तरह से अंतर के पैमाने पर ब्रह्मांड और इसकी आकाशगंगाएँ और मस्तिष्क और इसकी न्यूरोनल कोशिकाएं। एक समान ही प्रतित होती हैं ऐसा इसलिये कहना न्यायोचित हैं कि ब्रह्माण्ड एक बड़ा दिमाग हैं। 

2. ब्रह्मांड का जनक कौन है ?

ब्रह्माण्ड का जनक कौन हैं ये कहना मुश्किल हैं। लेकिन लेमैत्रे ने ब्रह्मांड की उत्पत्ति की बिगबैंग सिद्धांत को भी प्रस्थापित किया था। जिसे वह अपनी 'हायपोथेसिस ऑफ द प्रीमेवल एटम' Hypothesis of the Primal Atom'  'कॉसमिक एग' Cosmic Egg कहते थे। इन्होंने ब्रह्माण्ड कि उत्पत्ति लगभग 15 अरब वर्ष पूर्व बताया हैं। लेमैत्रे एक रोमन वैज्ञानिक थे

3.मस्तिष्क ब्रह्मांड से कैसे जुड़ा हैं ?

मानव मस्तिष्क और ब्रह्मांड की संरचना प्रकृति में सबसे जटिल प्रणालियों में से एक हैं। हमारे दिमाग में आणविक स्तर से लेकर न्यूरॉन्स और अन्य कोशिकाओं के नेटवर्क तक सब कुछ आपस में जुड़ा हुआ हैं, जो और भी जटिल संरचनाएं बनाते हैं, तो ऐसा ब्रह्मांड में सब कुछ हैं अत: मस्तिष्क ब्रह्माण्ड से ही मेल खाता हैं। 

4. ब्रह्मांड के प्रमुख घटक क्या हैं ?

माना जाता हैं कि- ब्रह्मांड तीन प्रकार के पदार्थों से बना हैं: 1. सामान्य पदार्थ- "डार्क मैटर" "डार्क एनर्जी"। 2. सामान्य पदार्थ में परमाणु होते हैं जो सितारों, ग्रहों, मनुष्यों और ब्रह्मांड में दिखाई देने वाली हर दूसरी वस्तु को बनाते हैं

5. क्या ब्रह्मांड मानव शरीर की तरह हैं ?

ब्रह्माण्ड मानव शरीर के मस्तिष्क के आसपास ही हैं ब्रह्मांड स्व-समान पैमाने पर हो सकता हैं जो एक  अरब के कारक द्वारा आकार में भिन्न होता हैं। मानव मस्तिष्क में न्यूरॉन्स की कुल संख्या देखने योग्य ब्रह्मांड में आकाशगंगाओं की संख्या के समान बॉलपार्क Ballpark में आती हैं।

नोट:- 'इस लेख में दी गई जानकारी, सामग्री, गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं हैं सूचना के विभिन्न माध्यमों, ज्योतिषियों, पंचाग, प्रवचन, धार्मिक मान्यताओं, थर्मग्रंथों से संकलित करके यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना हैं, पाठक या उपयोगकर्ता इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह से उपयोग की जिम्मेदारी स्वयं उपयोगकर्ता या पाठक की ही होगी '।

CONCLUSION- आज हमने हमारें लेख- शरीर ही ब्रह्माण्ड-Shareer he Brahmand के माध्यम से जाना कि- ह्रदय केन्द्र से समान रूप से चारों ओर प्रकाशपुंज फैलाता रहता हैं। अत: हृदय समत्व योग में समाहित माना गया हैं। हृदय से शरीर तक और शरीर के बाहरी विषयों तक संसार स्थान कहलाता हैं। इन्द्रिय शरीर स्थान से संसार स्थान के मध्य आसक्त होना ही मोह हैं। संसार स्थान से हटना द्वेष हैं, शरीर में मग्न रहना राग हैं और शरीर से हटना द्वेष हैं।आशा करते हैं कि आपको हमारा ये लेख पसंद आया होगा धन्यवाद।

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