अग्नि-सोम ही माता-पिता "अग्नीषोमात्मकं जगत "
आज हम हमारे इस लेख में जानेंगे कि किस प्रकार से अग्नि- सोम ही माता-पिता हैं Agni Soma he Mata Pita Agnishomatakam Jagat: जिस वायु से विश्व के पदार्थ गतिशील बने हुए हैं, अध्यात्म संस्था में जो वायु प्राण- अपान-व्यान-समान-उदान-भेद से विभक्त होकर रक्तदान संचार का कारण बनता हैं, वही 'प्राणवायु' हैं! अग्नि-सोम ही माता-पिता Agni-Som Hee Maata-pita "अग्नीषोमात्मकं जगत"अग्नि के दो भेद हैं-सत्य और यज्ञ सत्य अग्नि मौलिक तथा यज्ञाग्नि यौगिक हैं।
अग्नि-सोम ही माता-पिता "अग्नीषोमात्मकं जगत "
Agni Soma he Mata Pita Agnishomatakam Jagat: सत्य अग्नि "अमृत प्रधान" तथा यज्ञाग्नि "मृत्युप्रधान" हैं, सत्य अग्नि ब्रह्म हैं, ब्रह्म ही यज्ञ की प्रतिष्ठा हैं- "ब्रह्म हवैं सर्वस्य प्रतिष्ठा"! यह "ब्रह्माग्नि ऋजुन्था हैं" अर्थात् सीधे गमन करता हैं, स्वयंभू के प्राणों के तपन से उत्पन्न तत्त्व को आप "सुवेद सुब्रह्म अथर्व" आदि नामों से जाना जाता हैं। यह आप "व्याप्तिधर्मा" हैं अर्थात् जिस प्रकार 'पानी की बूंद को नीचे टपकाने पर वह चारों ओर फैल जाती हैं', उसी प्रकार यह आप तत्त्व व्याप्त होने वाला हैं। इस आप अथवा सुब्रह्म तत्त्व में जाया-धारा-आप जीवन-ऋत ये पांच प्रकार के बल उत्पन्न होते हैं, ब्रह्म के इच्छा-तप-श्रम से पहले सुब्रह्म की उत्पत्ति होती हैं। इसके बाद जाया-धारा आदि पांच बल उत्पन्न होते हैं।
भोजन की इच्छा क्यों हुईं ? इसका उत्तर नहीं हैं, यही कहते हैं कि ईश्वरेच्छा हैं, ईश्वरतत्व अनुमान सिद्ध हैं, बिना प्राण के वाग्-व्यापार नहीं हो सकता। बिना इच्छा के प्राणों की क्रिया सम्भव नहीं हैं। सृष्टि निर्माण में जो कुछ विचित्रता उत्पन्न होती हैं, वह सब प्रजापति की इच्छा पर निर्भर हैं। प्रजापति कामना द्वारा अपने वेद के वाक् भाग से सर्वप्रथम आपः तत्त्व "सूक्ष्म जल" उत्पन्न करता हैं- 'त्रय्या विद्यया सहाप: प्राविशत्' (शत. 6.1.1.9)
इसके बाद स्वयं आप के गर्भ में प्रविष्ट हो जाता हैं। इससे मण्डल "ब्रह्माण्ड" का उदय हो जाता हैं- 'तत आण्डं समवर्त्तत'! पुनः ब्रह्म की इच्छा से आप में धृतिबल 'प्रतिष्ठाबल' उत्पन्न हो जाता हैं। इसे 'धाराबल' भी कहते हैं। सातों लोकों को आप ने ही धारण कर रखा हैं, लोक सबकी प्रतिष्ठा हैं, लोक की प्रतिष्ठा आप हैं:- 'सर्वमप्सु प्रतिष्ठितम्'!
"इच्छा-तप-श्रम" के निरन्तर व्यापार से नये-नये बल पैदा होते जाते हैं, इस श्रृंखला में सुब्रह्म तथा बलों के बाद "भृगु तत्त्व" पैदा होता हैं। भृगु तत्त्व आप प्रधान हैं, इसमें मधुर और क्षार 'सोम-अग्नि दो तत्त्व पैदा होते हैं। मधुर स्वधर्म है, क्षार आश्रित धर्म हैं, यद्यपि जीव और ईश्वर दोनों में दोनों रस रहते हैं, लेकिन ईश्वर में मधुर रस की तथा जीव में क्षार रस की प्रधानता हैं। मधुर भाग ही सृष्टि का उपादान कारण बनता हैं यही भृगु रूप में परिणत होकर सृष्टि का रेत बनता हैं। भृगु भर्जनशील 'भूनने वाला' हैं, यही भृगु सोम हैं। भृगु की धन-तरल-विरल तीन अवस्थाएं होती हैं, इसकी तरल अवस्था वायु हैं, इस "भार्गव वायु" की प्राण-पवमान-मातरिश्वा-सविता ये चार अवस्थाएं हैं।
Agni Soma he Mata Pita Agnishomatakam Jagat: श्वास प्रश्वास रूप प्राणवायु 'पवमान' हैं, पवमान-वायु और आप दोनों के संयोग से ''स्थूल जल'' बनता हैं, दुसरा हैं मातरिश्व वायु माता "पिण्ड" को कहतें हैं, पिता "महिमा मण्डल" का नाम हैं, पिण्ड को पृथ्वी और महिमा को 'द्मु' कहा जाता हैं, पृथ्वी, चन्द्रमा, सुर्य, परमेष्ठी और स्वयंभू पांचों ही पिण्ड होने से 'माता' हैं माता रूप पिण्ड के चारों ओर व्याप्त रहने वाला भार्गव वायु ही 'मातारिश्वा' हैं। जो वायु सांसारिक पदार्थों को कार्य-कारण भाव के लिए प्रेरित करता हैं, उसको 'सवितावायु' कहते हैं।
बिना सवितावायु की प्रेरणा के कोई भी प्राण, कोई भी वस्तु "सृष्टि-उन्मुख" नहीं बन सकती, जिस वायु से विश्व के पदार्थ गतिशील बने हुए हैं, अध्यात्म संस्था में जो वायु प्राण "अपान-व्यान-समान- उदान" भेद से विभक्त होकर "रक्तादि संचार" का कारण बनता हैं, वही ''प्राणवायु'' हैं। "मेघ-जल-वृक्षादि" वातवायु से चलायमान होते हैं। यह वातवायु भौतिक हैं और इन चारों से सर्वथा भिन्न तत्त्व हैं।
भार्गववायु के साथ ही साथ "अंगिरावायु" का भी विकास होता हैं। अंगिरा से "रुद्र वायु" तथा रुद्र से 49 प्रकार के "मरुद्वायु" विकसित होते हैं। पूर्व दिशा- में प्रतिष्ठित प्राण वायु सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त होता हैं, इसीलिए पूर्व दिशा में स्थित सूर्य के लिए 'प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः' यह कहा जाता हैं। "मातरिश्वा वायु" दक्षिण दिशा- में प्रतिष्ठित रहता हैं, सर्वत्र व्याप्त हुआ यह "पिण्डसृष्टि" के स्वरूप का निर्माता बनता हैं। पश्चिम दिशा- में "पवमान वायु" रहता हैं। इसी पवमान के लिए ''पवमानो हरित आविवेश'' (शत. 2.2.5.5) यह कहा जाता हैं। "सविता" उत्तर दिशा- में प्रतिष्ठित रहता हैं। चेतन अथवा अचेतन सभी पदार्थों की उत्पत्ति में योनि, रेत और रेतोधा तीनों भावों की अपेक्षा रहती हैं। पदार्थों की उत्पत्ति में उपादान कारण रेत हैं, जिसमें प्रतिष्ठित होकर वह अपनी "प्रजननशक्ति" को विकसित करने में समर्थ होता हैं, वह योनि हैं, रेत का योनि में आधान करने वाला तत्त्व "रेतोधा" हैं। सृष्टि कामना से ब्रह्म व सुब्रह्म रूप में परिणत प्रजापति का ब्रह्म भाग यजुः हैं, अग्नि हैं, यही योनि हैं। सुब्रह्म भाग रेत हैं, सोम हैं, मितरिश्वा वायु रेतोधा हैं, क्षेत्र में रेत की आहुति होती हैं, सन्तान प्राप्ति के लियें क्षेत्र माता का अधिकार हैं सृष्टि उसी की ईश्वर सन्तान हैं श्रुति कहती हैं-
"त्वं स्त्री, त्वं पुमानसि, त्वं कुमार उत वा कुमारी! नैव स्त्री न पुमानेष नचैवायं नपुंसक:!!
त्वमेव माता च पिता त्वमेव,त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव! त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देवदेव" !!
Agni Soma he Mata Pita Agnishomatakam Jagat: योनिरूप 'क्षेत्र' कहलाने वाला प्रजापति विश्व की 'माता' बनता हुआ 'स्त्री' हैं। "स्त्रियः सतीस्ताँ उ में पुंस आहुः"। यहां स्त्री रूप आत्मा को पुरुष कहा जा रहा हैं। स्त्री भी एक नहीं तीन तीन-अव्यय, अक्षर, और क्षर। पिता रेतोधा होता हैं, रेत की आहुति देने वाला हैं। आरम्भ में वही रेतोधा बनता हैं, पिता स्थानीय वह पुरुष अव्यय-अक्षर-क्षर रूप में तीन प्रकार का हैं। इस प्रकार विश्व की योनि होने से वह स्त्री हैं। रेतोधा दृष्टि से वह पुरुष हैं, रेत की दृष्टि से वही पुत्र हैं।
"अमृत-ब्रह्म-शुक्र" आत्मा के ये तीन विवर्त हैं। कारणातीत, कारक तथा कार्यरूप हैं इनको ही "ज्ञानात्मा, कामात्मा, कर्मात्मा" कहा जाता हैं। ब्रह्मात्मा, दैवात्मा, भूतात्मा ये ही हैं, तीनों अमृत आत्मा कहे गए हैं। यही "षोडशी पुरुष ब्रह्मात्मा" हैं। क्षर पुरुष पंचप्रकृति (कला) रूप ब्रह्मभाव हैं, देवात्मा हैं। वाक्, आपः, अग्नि की समष्टि विकृति भाव "शुक्र" कर्मात्मा हैं। विश्व के केन्द्र में स्थित "सूर्य हिरण्यगर्भ प्रजापति" हैं, सृष्टि का आत्मा हैं- ''सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च'' सूर्य की तीन कलाएं- आत्मा, प्राण और पशु हैं। ये ही क्रमशः तीन मनोता हैं- आयु, ज्योति, गौ ! आत्मा का आधार आयु भाग हैं। ज्योति तत्त्व प्रकाश रूप देवता के विकास का आधार हैं। भूतभाग का जनक तत्त्व गौ हैं। इनमें आयु तत्त्व मुख्य प्राण हैं, ज्योति भाग प्राणरूप देवता हैं। ज्योति "अग्नि-सोम" रूप दो भागों में विभक्त हैं। अतः सौर आत्मा भी दो भागों में विभक्त हैं।
आग्नेय प्राण भाग सौर सावित्री दाहक हैं- पुरुष हैं, सौम्य प्राण भाग भार्गव सोम दाह्य हैं, स्त्री हैं। इन दोनों के मिथुन से दश प्राण युक्त विराट् पुत्र उत्पन्न होता हैं।
"सौर रश्मियों में अग्नि-सोम" दोनों रहते हैं किन्तु प्रधानता सोम की होती हैं, अतः रश्मिमण्डल स्त्री रूप होता हैं। सोम को भृगु एवं कवि भी कहते हैं, क्योंकि भृगु सोम ही अग्नि में आहूत होकर विराट् पुत्र रूप में उत्पन्न होता हैं। उसी विराट्- पुत्र के कारण अग्नि-सोम का व्यक्तिभाव "माता-पिता" प्रकट होता हैं। सूर्य में दोनों हैं, विराट् पुत्र ही पिता का अभिव्यंजक भी हैं, अतः रश्मियां स्त्रीरूप होते हुए भी पुरुष ही हैं। विराट्- ऋक्, यत्, जू़, साम, अग्नि, यम, आदित्य, आप:, वायु, सोम इन दस तत्वों की समष्टि विराट् कहलाती हैं। अत: इस लेख के माध्यम से हमनें ये जाना कि अग्नि-सोम ही माता-पिता "अग्नीषोमात्मकं जगत" हैं।
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