Mere Prabhu Shreeram...

हमनें हमारें पुराने लेख मर्यादा पुरुषोत्तम राम, श्री राम रक्षास्तोत्रम् भाग-प्रथम, श्री राम रक्षास्तोत्रम् द्वितीय, श्री राम आरती- स्तुति- श्लोक आदि लेखों के माध्यम से प्रभु श्री राम के बारें में जाना इस क्रम को आगें बढ़ते हुए आज हम हमारें लेख- Mere Prabhu Shreeram Shree Ramacharitamaanas Baalmeeki Ramaayan मेरे प्रभु श्रीराम! श्री रामचरितमानस! बाल्मीकि रामायण के माध्यम से श्री रामचरितमानस के बारें में कुछ जानेंगे-

Mere Prabhu Shreeram

Mere Prabhu Shreeram Shree Ramacharitamaanas Baalmeeki Ramaayan मेरे प्रभु श्रीराम श्री रामचरितमानस बाल्मीकि रामायण...

Mere Prabhu Shreeram: श्रीरामजी को 14 वर्ष का वनवास हुआ सहर्ष प्रभु वन की ओर निकले आपने राजपाट को त्याग वनवासी का चौला ओढ़े लिया, स्वयं भगवान होते हुए एक समस्या ने प्रभु को घेर लिया अयोध्या के पार वन जाना था मां गंगा जी सामने थी उस पार कैसे जायें ? उनके वियोग में प्रजा, माता और पिता कैसे जीते रहेंगे ? श्रीराम ने सुमंत्र को लौटाया तब गंगाजी के तीर पर आए तब केवट और श्रीरामचंद्रजी का जो सवांद या प्रसंग हुआ वो इस प्रकार हैं। 

1. श्री रामचंद्रजी केवट का प्रेम और गंगा पार जाना Shri Ramchandraji Kevat Ka Prem aur Ganga Paar Jaana...

चौपाई:- जासु बियोग बिकल पसु ऐसें। प्रजा मातु पितु जिइहहिं कैसें। बरबस राम सुमंत्रु पठाए। सुरसरि तीर आपु तब आए॥1॥

भावार्थ:- जिनके वियोग में पशु इस प्रकार व्याकुल हैं- उनके वियोग में प्रजा, माता और पिता कैसे जीते रहेंगे? श्री रामचन्द्रजी ने जबर्दस्ती सुमंत्र को लौटाया तब आप गंगाजी के तीर पर आए॥1॥

मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥ चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥2॥

भावार्थ:- श्री राम ने केवट से नाव माँगी, पर वह लाता नहीं। वह कहने लगा- मैंने तुम्हारा मर्म (भेद) जान लिया। तुम्हारे चरण कमलों की धूल के लिए सब लोग कहते हैं कि वह मनुष्य बना देने वाली कोई जड़ी है॥2॥

छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई॥ तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥3॥

भावार्थ:- जिसके छूते ही पत्थर की शिला सुंदरी स्त्री हो गई "मेरी नाव तो काठ की है" काठ पत्थर से कठोर तो होता नहीं। मेरी नाव भी मुनि की स्त्री हो जाएगी और इस प्रकार मेरी नाव उड़ जाएगी, मैं लुट जाऊँगा "अथवा रास्ता रुक जाएगा, जिससे आप पार न हो सकेंगे और मेरी रोजी मारी जाएगी" "मेरी कमाने-खाने की राह ही मारी जाएगी"॥3॥

एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू॥ जौं प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥4॥

भावार्थ:- मैं तो इसी नाव से सारे परिवार का पालन-पोषण करता हूँ। दूसरा कोई धंधा नहीं जानता। हे प्रभु! यदि तुम अवश्य ही पार जाना चाहते हो तो मुझे पहले अपने चरणकमल पखारने (धो लेने) के लिए कह दो॥4॥

Mere Prabhu Shreeram Shree Ramacharitamaanas Baalmeeki Ramaayan

छन्द:- पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं। मोहि राम राउरि आन दसरथसपथ सब साची कहौं॥ बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहौं। तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं॥

भावार्थ:- हे नाथ ! मैं चरण कमल धोकर आप लोगों को नाव पर चढ़ा लूँगा, मैं आपसे कुछ उतराई नहीं चाहता। हे राम ! मुझे आपकी दुहाई और दशरथजी की सौगंध है, मैं सब सच-सच कहता हूँ। लक्ष्मण भले ही मुझे तीर मारें, पर जब तक मैं पैरों को पखार न लूँगा, तब तक हे तुलसीदास के नाथ ! हे कृपालु ! मैं पार नहीं उतारूँगा।

सोरठा:- सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे। बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन॥101

भावार्थ:- केवट के प्रेम में लपेटे हुए अटपटे वचन सुनकर करुणाधाम श्री रामचन्द्रजी जानकीजी और लक्ष्मणजी की ओर देखकर हँसे॥101

चौपाई:- कृपासिंधु बोले मुसुकाई। सोइ करु जेहिं तव नाव न जाई॥ बेगि आनु जलपाय पखारू। होत बिलंबु उतारहि पारू॥1॥

भावार्थ:- कृपा के समुद्र श्री रामचन्द्रजी केवट से मुस्कुराकर बोले भाई ! तू वही कर जिससे तेरी नाव न जाए। जल्दी पानी ला और पैर धो ले। देर हो रही है, पार उतार दे॥1॥

जासु नाम सुमिरत एक बारा। उतरहिं नर भवसिंधु अपारा॥ सोइ कृपालु केवटहि निहोरा। जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते थोरा॥2॥

भावार्थ:- एक बार जिनका नाम स्मरण करते ही मनुष्य अपार भवसागर के पार उतर जाते हैं और जिन्होंने "वामनावतार में" जगत को तीन पग से भी छोटा कर दिया था "दो ही पग में त्रिलोकी को नाप लिया था" वही कृपालु श्री रामचन्द्रजी "गंगाजी से पार उतारने के लिए" केवट का निहोरा कर रहे हैं !॥2॥

चौपाई:- उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता। सीय रामुगुह लखन समेता॥ केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥1॥

भावार्थ:- निषादराज और लक्ष्मणजी सहित श्री सीताजी और श्री रामचन्द्रजी नाव से उतरकर गंगा की रेत बालू में खड़े हो गए। तब केवट ने उतरकर दण्डवत की। उसको दण्डवत करते देखकर प्रभु को संकोच हुआ कि इसको कुछ दिया नहीं॥1॥

पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥ कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥2॥

भावार्थ:- पति के हृदय की जानने वाली सीताजी ने आनंद भरे मन से अपनी रत्न जडि़त अँगूठी अँगुली से उतारी। कृपालु श्री रामचन्द्रजी ने केवट से कहा, नाव की उतराई लो। केवट ने व्याकुल होकर चरण पकड़ लिए॥2॥

नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा॥ बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥3॥

भावार्थ:- उसने कहा- हे नाथ ! आज मैंने क्या नहीं पाया ! मेरे दोष, दुःख और दरिद्रता की आग आज बुझ गई है। मैंने बहुत समय तक मजदूरी की। विधाता ने आज बहुत अच्छी भरपूर मजदूरी दे दी॥3॥

अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीन दयाल अनुग्रह तोरें॥ फिरती बार मोहि जो देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा॥4॥

भावार्थ:- हे नाथ ! हे दीनदयाल ! आपकी कृपा से अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। लौटती बार आप मुझे जो कुछ देंगे, वह प्रसाद मैं सिर चढ़ाकर लूँगा॥4॥

दोहा:- बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ। बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ॥102॥

भावार्थ:- प्रभु श्री राम जी, लक्ष्मणजी और सीताजी ने बहुत आग्रह (या यत्न) किया, पर केवट कुछ नहीं लेता। तब करुणा के धाम भगवान श्री रामचन्द्रजी ने निर्मल भक्ति का वरदान देकर उसे विदा किया॥102॥

Mere Prabhu Shreeram Shree Ramacharitamaanas Baalmeeki Ramaayan

चौपाई:- तब मज्जनु करि रघुकुलनाथा। पूजि पारथिव नायउ माथा॥ सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरउबि मोरी॥1॥

भावार्थ:- फिर रघुकुल के स्वामी श्री रामचन्द्रजी ने स्नान करके पार्थिव पूजा की और शिवजी को सिर नवाया। सीताजी ने हाथ जोड़कर गंगाजी से कहा- हे माता! मेरा मनोरथ पूरा कीजिएगा॥1॥

पति देवर सँग कुसल बहोरी। आइ करौं जेहिं पूजा तोरी॥ सुनि सिय बिनय प्रेम रस सानी। भइ तब बिमल बारि बर बानी॥2॥

भावार्थ:- जिससे मैं पति और देवर के साथ कुशलतापूर्वक लौट आकर तुम्हारी पूजा करूँ। सीताजी की प्रेम रस में सनी हुई विनती सुनकर तब गंगाजी के निर्मल जल में से श्रेष्ठ वाणी हुई-॥2॥

सुनु रघुबीर प्रिया बैदेही। तब प्रभाउ जग बिदित न केही॥ लोकप होहिं बिलोकत तोरें। तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरें॥3॥

भावार्थ:- हे रघुवीर की प्रियतमा जानकी! सुनो, तुम्हारा प्रभाव जगत में किसे नहीं मालूम हैं ? तुम्हारे कृपा दृष्टि से देखते ही लोग लोकपाल हो जाते हैं। सब सिद्धियाँ हाथ जोड़े तुम्हारी सेवा करती हैं॥3॥

 तुम्ह जो हमहि बड़ि बिनय सुनाई। कृपा कीन्हि मोहि दीन्हि बड़ाई॥ तदपि देबि मैं देबि असीसा। सफल होन हित निज बागीसा॥4॥

भावार्थ:- तुमने जो मुझको बड़ी विनती सुनाई, यह तो मुझ पर कृपा की और मुझे बड़ाई दी है। तो भी हे देवी! मैं अपनी वाणी सफल होने के लिए तुम्हें आशीर्वाद दूँगी॥4॥

दोहा:- प्राननाथ देवर सहित कुसल कोसला आइ। पूजिहि सब मनकामना सुजसु रहिहि जग छाइ॥103॥

भावार्थ:- तुम अपने प्राणनाथ और देवर सहित कुशलपूर्वक अयोध्या लौटोगी। तुम्हारी सारी मनःकामनाएँ पूरी होंगी और तुम्हारा सुंदर यश जगतभर में छा जाएगा॥103॥

चौपाई:- गंग बचन सुनि मंगल मूला। मुदित सीय सुरसरि अनुकूला॥ तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू। सुनत सूख मुखु भा उर दाहू॥1॥

भावार्थ:- मंगल के मूल गंगाजी के वचन सुनकर और देवनदी को अनुकूल देखकर सीताजी आनंदित हुईं। तब प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने निषादराज गुह से कहा कि भैया ! अब तुम घर जाओ ! यह सुनते ही उसका मुँह सूख गया और हृदय में दाह उत्पन्न हो गया॥1॥

दीन बचन गुह कह कर जोरी। बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी॥ नाथ साथ रहि पंथु देखाई। करि दिन चारि चरन सेवकाई॥2॥

भावार्थ:- गुह हाथ जोड़कर दीन वचन बोला- हे रघुकुल शिरोमणि! मेरी विनती सुनिए। मैं नाथ (आप) के साथ रहकर, रास्ता दिखाकर, चार (कुछ) दिन चरणों की सेवा करके-॥2॥

जेहिं बन जाइ रहब रघुराई। परनकुटी मैं करबि सुहाई॥ तब मोहि कहँ जसि देब रजाई। सोइ करिहउँ रघुबीर दोहाई॥3॥

भावार्थ:- हे रघुराज ! जिस वन में आप जाकर रहेंगे, वहाँ मैं सुंदर पर्णकुटी पत्तों की कुटिया बना दूँगा। तब मुझे आप जैसी आज्ञा देंगे, मुझे रघुवीर आप की दुहाई है, मैं वैसा ही करूँगा॥3॥

सहज सनेह राम लखि तासू। संग लीन्ह गुह हृदयँ हुलासू॥ पुनि गुहँ ग्याति बोलि सब लीन्हे। करि परितोषु बिदा तब कीन्हे॥4॥

भावार्थ:- उसके स्वाभाविक प्रेम को देखकर श्री रामचन्द्रजी ने उसको साथ ले लिया, इससे गुह के हृदय में बड़ा आनंद हुआ। फिर गुह "निषादराज" ने अपनी जाति के लोगों को बुला लिया और उनका संतोष कराके तब उनको विदा किया॥4॥

गोस्वामी तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस भारतीय संस्कृति मे एक विशेष स्थान रखती हैं और मनुष्य की सबसे बड़ी मार्गदर्शक  हैं । इसके सात काण्ड 1. बालकाण्ड 2. अयोध्याकाण्ड 3. अरण्यकाण्ड 4. किष्किन्धाकाण्ड 5. सुन्दरकाण्ड 6. लंकाकाण्ड 7. उत्तरकाण्ड मनुष्य को अनमोल शिक्षा देकर उसकी सभी प्रकार की उन्नति कराने वाले सोपान हैं । गोस्वामी तुलसीदास जी ने इन्हें सोपान इसलिए कहा हैं क्योंकि ये राम जी के चरणों तक पहुंचने की सीढ़ियां हैं ।

नोटः-'इस लेख में दी गई जानकारी, सामग्री, गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं हैं। सूचना के विभिन्न माध्यमों, ज्योतिषियों, पंचांग, प्रवचनों, धार्मिक मान्यताओं, धर्मग्रंथों से संकलित करके यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना हैं, पाठक या उपयोगकर्ता इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह से उपयोग की जिम्मेदारी स्वयं उपयोगकर्ता या पाठक की ही होगी।'

CONCLUSION:-आज हमनें हमारें लेख- Mere Prabhu Shreeram Shree Ramacharitamaanas Baalmeeki Ramaayan मेरे प्रभु श्रीराम श्री रामचरितमानस बाल्मीकि रामायणके माध्यम से आपको बताया कि जब श्रीराम अयोध्या से वनवास की ओर जा रहें थे तो बीच में उन्हें केवटराज मिलें और जो उनमें संवाद हुआ उसे आज हमनें आपने लेख के माध्यम से प्रस्तुत किया हमें आशा हैं कि आप सभी को ये लेख पसंद आयें और हम आपके लियें यूं ही लेख प्रस्तुत करते रहें धन्यवाद।

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