मीराबाई एक परिचय ! मीरा के प्रभु गिरधर नागर...

हमनें हमारें पुराने लेख सप्तर्षि की कथा, विजया एकादशीं व्रत कथा, राम भक्त हनुमान और गंगा देवी का देवत्व आदि कथाओं के माध्यम से जाना की उनका महत्व क्या हैं इस क्रम को आगें बढ़ाते हुए हमारें लेख मीराबाईं एक परिचय! मीरा के प्रभु गिरधर नागर के माध्यम से श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन मीराबाईं की कथा के बारें में जानेंगे तो आयें जानतें हैं-

मीराबाई का जन्म सन 1498ई॰ में पाली के कुड़की गांव में दूदा जी के चौथे पुत्र रतन सिंह के घर हुआ ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं मीराबाई का विवाह मेवाड़ के सिसोदिया राज परिवार में हुआ चित्तौड़गढ़ के महाराजा भोजराज इनके पति थे जो मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र थे विवाह के कुछ समय बाद ही उनके पति का देहान्त हो गया पति की मृत्यु के बाद उन्हें पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया किन्तु मीरा इसके लियें तैयार नहीं हुईं मीरा के पति का अंतिम संस्कार चित्तोड़ में मीरा की अनुपस्थिति में हुआ पति की मृत्यु पर भी मीरा माता ने अपना श्रृंगार नहीं उतारा क्योंकि वह गिरधर को अपना पति मानती थी।

मीराबाई एक परिचय ! मीरा के प्रभु गिरधर नागर...

मीराबाई एक परिचय ! मीरा के प्रभु गिरधर नागर...

वे विरक्त हो गईं और साधु-संतों की संगति में हरिकीर्तन करते हुयें अपना समय व्यतीत करने लगीं पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। मीरा मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं। मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृन्दावन गई। वह जहाँ जाती थी वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था लोग उन्हें देवी के जैसा प्यार और सम्मान देते थे।

मीराबाई का समय बहुत बड़ी राजनैतिक उथल-पुथल का समय रहा हैं बाबर का हिंदुस्तान पर हमला और प्रसिद्ध खानवा का युद्ध इसी समय हुआ था इन सभी परिस्थितियों के बीच मीराबाई का रहस्यवाद और भक्ति की निर्गुण मिश्रित सगुण पद्धति सर्वमान्य बनी-

भक्तिकाल में सगुणभक्ति और निर्गुण भक्ति शाखा के अंतर्गत आने वाले प्रमुख कवि हैं - कबीरदास,तुलसीदास, सूरदास, नंददास, कृष्णदास, परमानंद दास, कुंभनदास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी, हितहरिवंश, गदाधर भट्ट, मीराबाई, स्वामी हरिदास, सूरदास मदनमोहन, श्रीभट्ट, व्यास जी, रसखान, ध्रुवदास तथा चैतन्य महाप्रभु, रहीमदास

1. मीराबाई के आध्यात्मिक गुरु का परिचय:-

मीराबाई के आध्यात्मिक गुरु संत रविदास थे  मीरा के दादाजी राव जोधा साधू संतों का बड़ा सम्मान करते थे । एक बार राव जोधा के दरबार में रविदास नाम के एक संत का आगमन हुआ जिनके हाथों में श्रीकृष्ण की प्रतिमा को देख  मीराबाई उसको पाने को ललाईत होने लगीं और उस प्रतिमा को पाने का प्रयास करने लगीं । मीराबाई ने संत रविदास से प्रतिमा देने का आग्रह किया तब संत रविदास ने उनकों वह प्रतिमा नहीं दी  परंतु दूसरे दिन फिर वह दरबार में पधारे और उनको वह प्रतिमा दे दी  रविदास ने बताया कि स्वयं "श्रीकृष्ण" ने सपने में आकर मुझ से कहा कि मेरे सबसे प्रिय भक्त को प्रतिमा क्यूँ नहीं दी?  मीरा मेरे विरह में रो रही हैं उठो और उसको यह प्रतिमा दे दो- 

रविदास ने कहा कि मैं अपने स्वामी की आज्ञा कैसे टाल सकता हूँ इसीलिए प्रतिमा दे रहा हूँ।  विद्वानों का मानना हैं कि यह कथा कल्पना मात्र नहीं अपितु सत्य घटना हैं। मीरा ने स्वयं अपने गीतों में कहा हैं। "मेरा ध्यान हरि की ओर हैं और मैं हरी के साथ एक रूप हो गई हूं।" मैं अपना मार्ग स्पष्ट देख रही हूं  मेरे गुरु रविदास ने मुझे गुरु मंत्र दिया  हैं, हरी नाम ने मेरे हृदय में बहुत गहराई तक अपना स्थान जमा लिया हैं।

2. भाषा शैली या काव्य शैली:-

मीराबाई के काव्य में उनके हृदय की सरलता, तरलता तथा निश्छलता स्पष्ट रूप से प्रकट होती हैं। मीराबाई ने गीति काव्य की रचना की तथा उन्होंने कृष्णभक्त कवियों की परम्परागत पद-शैली को अपनाया  मीराबाई के सभी पद संगीत के स्वरों में बँधे हुए हैं, उनके गीतों में उनकी आवेश पूर्ण आत्माभिव्यक्ति मिलती हैं। प्रियतम के समक्ष आत्म-समर्पण की भावना तथा तन्मयता ने उनके काव्य को मार्मिक तथा प्रभावोत्पादक बना दिया हैं कृष्ण के प्रति प्रेमभाव  ही मीराबाई की कविता का उद्देश्य रहा हैं। 

मीरा जीवन-भर कृष्ण की वियोगिनी बनी रहीं उनके काव्य में हृदय की आवेशपूर्ण विह्वलता देखने को मिलती हैं। मीरा की काव्य-भाषा शुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा के निकट हैं तथा उस पर राजस्थानी, गुजराती, पश्चिमी हिन्दी और पंजाबी का प्रभाव दृष्टिगोचर होता हैं उनकी काव्य-भाषा अत्यन्त मधुर, सरस और प्रभावपूर्ण हैं। पाण्डित्य प्रदर्शन करना मीरा का कभी भी उद्देश्य नहीं रहा। कृष्ण के प्रति उनके अगाध प्रेम ने ही उन्हें कृष्णकाव्य के समुन्नत स्थल तक पहुँचाया। इनकी रचनाओं में श्रृंगार रस का प्रयोग प्रमुखता से किया गया हैं, इन्होंने वियोग क्षृंगार तथा कहीं-कहीं शांत रस का भी प्रयोग किया हैं। इनके गायें पदों में कई रागों एवं छंदों का प्रयोग किया गया हैं। 

3. भाव पक्ष और कला पक्ष:-

1. मीराबाई का भाव पक्ष :- 

मीराबाई ने गोपियों की तरह कृष्ण को अपना पति माना और गोपियों की ही भाँति मीरा माधुर्य भाव से कृष्ण की उपासना करती थीं। मीरा का जीवन कृष्णमय था और सदैव कृष्ण भक्ति में लीन रहती थी। मीरा ने "मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई, जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई"।  कहकर पूरे समर्पण के साथ भक्ति की मीरा के काव्य में विरह की तीव्र मार्मिकता पाई जाती हैं। विनय एवं भक्ति संबंधी पद भी पायें जाते हैं। मीरा के काव्य में श्रृंगार तथा शांत रस की धारा प्रवाहित होती हैं।

2. मीराबाई का कला पक्ष :-

मीराबाई कृष्ण भक्त थी काव्य रचना मीरा का कभी भी उद्देश्य नहीं रहा इसलिए मीरा का कला पक्ष अनगढ़ हैं साहित्यिक ब्रजभाषा होते हुए भी उन पर राजस्थानी, गुजराती भाषा का विशेष प्रभाव हैं। मीराबाई ने गीति काव्य की रचना की तथा उन्होंने कृष्णभक्त कवियों की परम्परागत पदशैली को अपनाया मीराबाई के सभी पद संगीत के स्वरों में बँधे हुए हैं  उनके गीतों में उनकी आवेशपूर्ण आत्माभिव्यक्ति मिलती हैं। संगीतात्मक प्रधान हैं क्षृंगार के दोनों पक्षों का चित्रण हुआ हैं- रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग मिलता हैं। सरलता और सहायता ही मीरा के काव्य के विशेष गुण हैं- पदावली मीराबाई की पदावली आज भी बहुत प्रसिद्ध है। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:-


बसो मेरे नैनन में नंदलाल । मोर मुकुट मकराकृत कुण्डल, अरुण तिलक दिए भाल । मोहनि मूरति, साँवरि सूरति , नैना बने बिसाल । अधर-सुधा-रस मुरली राजत, उर बैजंती-माल छुद्र घंटिका कटि-तट सोभित, नूपुर सबद रसाल  मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्त बछल गोपाल ।।१।।

पायो जी म्हैं तो राम रतन धन पायो । वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, किरपा कर अपनायो । जनम-जनम की पूँजी पायी, जग में सभी खोवायो । खरचैं नहिं कोई चोरं न लेवै, दिनदिन बढ़त सवायो । सत की नाव खेवटिया सतगुरु , भवसागर तर आयो । मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरख-हरख जस गायो  ।।२।।

माई री, मैं तो लियो गोविन्दो मोल । कोई कहै छाने, कोई कहै चुपके, लियो री बजन्ता ढोल कोई कहै मुँहधो, कोई कहै मुँहधो, लियो री तराजू तोल । कोई कहै कारो, कोई कहै गोरो, लियो री अमोलक मोल याही कूँ सब जाणत हैं , लियो री आँखी खोल । मीरा कूँ प्रभु दरसण दीन्यौ, पूरब जनम कौ कौल ।।३।।

मैं तो साँवरे के रंग राँची साजि सिंगार बाँधि पग घुघरू, लोक-लाज तजि नाँची गई कुमति लई साधु की संगति , भगत रूप भई साँची गाय-गाय हरि के गुण निसदिन, काल ब्याल सँ बाँची उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब काँची मीरा श्री गिरधरन लाल सूँ भगति रसीली जाँची ।।४।।

 मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई तात मात भ्रात बन्धु, आपनो न कोई । छाँड़ि दई कुल की कानि, कहा करिहै कोई संतन ढिंग बैठि-बैठि, लोक-लाज खोई असुवन जल सींचि-सींचि, प्रेम - बेलि बोई अब तो बेल फैल गई, आणंद फल होई भगति देखि राजी हुई, जगत देखि रोई । दासी मीरा लाल गिरधर , तारो अब मोई  ।।५।। - मीराबाई "सुधा-सिन्धु" से

FAQ-

1. मीरा बाईं का दर्शन क्या था ? 

मीराबाईं श्रीकृष्ण की उपासक थी उन्होंने बचपन में ही श्रीकृष्ण को अपना मान सब समर्पित कर दिया मीराबाईं ने ये सन्देश दिया कि कैसे प्रेम के माध्यम से ईश्वर को प्राप्त किया उन्होंने बताया की श्री कृष्ण ही उनके सब कुछ हैं- "मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरख हरख जस गायब"। कहा जाता हैं कि मृत्यु उपरांत मीरा श्री कृष्ण में ही समाहित हो गईं। प्रेम और भक्ति ही मीरा बाईं का दर्शन था। 

2. मीरा ने किसका गुणगान किया ? 

मीराबाईं ने सदा श्रीकृष्ण का गुणगान किया मीरा ने स्वयं अपने गीतों में कहा- मेरा ध्यान हरि की ओर हैं और मैं हरि के साथ एक रूप हो गईं हूँ, मैं अपना मार्ग स्पष्ट देख रहीं हूँ, मेरे गुरु रविदास ने मुझें गुरु मंत्र दिया हैं। हरि नाम ने मेरे हृदय में बहुत गहराईं तक अपना स्थान जमा लिया हैं अत: इन बातों से स्पष्ट हैं कि सदा मीरा ने श्री कृष्ण का ही गुणगान किया था। 

3. मीराबाईं के प्रभु कौन हैं ? 

मीराबाईं ने गोपियों की तरह कृष्ण को अपना पति माना और गोपियों की भाॅति मीरा माधुर्य भाव से कृष्ण की उपासना करती थी। मीरा का जीवन कृष्णमय था और सदैव कृष्ण भक्ति में लीन रहती थी। मीरा ने " मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोईं " अर्थात मीराबाईं के प्रभु श्री कृष्ण ही थे। 

4. मीरा ने विष क्यों पिया था ? 

वे विरक्त हो गई और साधु-संतों की संगति में हरिकीर्तन करते हुयें अपना समय व्यतीत करने लगीं पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती गईं। मीरा मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं। मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा तब उन्होंने कई बार मीराबाईं को विष देकर मारने की कोशिश की घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृन्दावन गईं।

5. मीराबाईं की पूरी कहानी क्या हैं ? 

मीराबाईं का जन्म सन् 1498 ई. में पाली नगर के कुड़ी गाँव में दूदाजी के चौथे पुत्र रतन सिंह के घर हुआ था। मीरा बाईं के गुरु रविदास जी थे। मीराबाईं का विवाह मेवाड़ के सिसोदिया राज परिवार में हुआ चित्तौड़गढ़ के महाराजा महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज मीराबाईं के पति थे जो कि अल्प आयु में ही स्वर्ग सिधार गयें थे पति की मृत्यु पर भी मीराबाईं ने अपना श्रृंगार नहीं उतारा क्योंकि वह गिरधर को अपना पति मानती थीं। 

नोटः-'इस लेख में दी गई जानकारी, सामग्री, गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। सूचना के विभिन्न माध्यमों, ज्योतिषियों, पंचांग, प्रवचनों, धार्मिक मान्यताओं, धर्मग्रंथों से संकलित करके यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं। हमारा उद्देश्य सिर्फ सूचना पहुंचाना है, पाठक या उपयोगकर्ता इसे सिर्फ सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी तरह से उपयोग की जिम्मेदारी स्वयं उपयोगकर्ता या पाठक की ही होगी।'

CONCLUSION:-मीराबाई एक परिचय ! मीरा के प्रभु गिरधर नागर...

कोई टिप्पणी नहीं

Blogger द्वारा संचालित.