Jyotish Shastra Pratyaksh Jyotishaam Shastram...
आज हम हमारें लेख ज्योतिषं शास्त्र- प्रत्यक्ष ज्योतिषं शास्त्रं के माध्यम से ज्योतिष शास्त्र के बारें में विस्तृत रुप से जानेंगे जैसा कि-वेदांगों में ज्योतिषंशास्त्र का एक महत्वपूर्ण स्थान हैं। महार्षि 'पाणिनि' ने ज्योतिषं को वेदपुरूष का नेत्र कहा हैं- ज्योतिषांमयन चक्षु : जैसे मनुष्य बिना चक्षु असमर्थ होता हैं ठीक वैसे ही वेदशास्त्र या वेद-शास्त्रविहित कर्मो को जानने के लिये ज्योतिषं का अन्यतम महत्व सिद्ध हैं। भूतल, अन्तरिक्ष और भूगर्भ के प्रत्येक पदार्थों का त्रैकालिक यथार्थ ज्ञान जिस शास्त्र से हो वह ज्योतिषंशास्त्र हैं।
Jyotish Shastra Pratyaksh Jyotishaam Shastram ज्योतिषं शास्त्र- प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रंम् ...
Jyotish Shastra Pratyaksh Jyotishaam Shastram: ज्योतिषं ज्योति का शास्त्र हैं। ज्योति 'आकाशीय पिण्डों' 'नक्षत्रों और ग्रहादि' से आती हैं परन्तु ज्योतिषं में सभी पिण्डों का अध्ययन नहीं होता। यह अध्ययन केवल सौमण्डल व नक्षत्र मण्डल तक ही सीमित हैं। ज्योतिषं का मूलभूत सिद्धान्त हैं कि आकाशीय पिण्डों का प्रभाव सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर पड़ता हैं। इस प्रकार मानव-संसार पर भी इन नक्षत्रों एवं ग्रहों आदि का प्रभाव पड़ता हैं और इस प्रभाव को देखने या जानने के लिये हमें ज्योतिषं रूपी नेत्र की आवश्यकता होती हैं।
1. क्या हैं ज्योतिषं विध्या What is astrology?
Jyotish Shastra Pratyaksh Jyotishaam Shastram: ज्योतिषं या ज्योतिषं शास्त्र वेदों ही जितना प्राचीन हैं। प्राचीन काल में ग्रह नक्षत्र और अन्य खगोलीय पिण्डों का अध्ययन करने के विषय को ही ज्योतिषं कहा गया था। इसके गणित भाग के बारे में तो बहुत स्पष्टता से कहा जा सकता हैं कि- इसके बारे में वेदों में स्पष्ट गणनाएं दी हुई हैं फलित भाग के बारे में बहुत बाद में जानकारी मिलती हैं। भारतीय आचार्य महर्षि गर्ग द्वारा रचित ज्योतिषं की पाडुलिपियों की संख्या एक लाख से भी अधिक हैं। प्राचीनकाल में गणित एवं ज्योतिषं एक समान ही थे परन्तु आगे चलकर इनके तीन भाग हो गए। 1. तन्त्र या सिद्धान्त:- गणित द्वारा ग्रहों की गतियों और नक्षत्रों का ज्ञान प्राप्त करना तथा उन्हें निश्चित करना। 2. होरा:- जिसका सम्बन्ध कुण्डली बनाने से था इसके तीन उपविभाग थे 1. जातक 2. यात्रा 3. विवाह। 3. शाखा :- यह एक विस्तृत भाग था जिसमें 1. शकुन परीक्षण 2. लक्षण परीक्षण एवं 3. भविष्य सूचन का विवरण था। इन तीनों स्कन्धों "तन्त्र-होरा-शाखा" का जो ज्ञाता होता था उसे 'संहितापारग' कहा जाता था।
Jyotish Shastra Pratyaksh Jyotishaam Shastram: तन्त्र या सिद्धान्त में मुख्यतः दो भाग होते हैं एक में ग्रह आदि की गणना और दूसरे में सृष्टि-आरम्भ, गोल-विचार, यन्त्र-रचना और काल-गणना सम्बन्धी मान रहते हैं। तंत्र और सिद्धान्त को बिल्कुल पृथक् नहीं रखा जा सकता। सिद्धान्त, तन्त्र और करण-कारण के लक्षणों में यह हैं कि ग्रह-गणित का विचार जिसमें कल्पादि या सृष्टयादि से हो वह सिद्धान्त जिसमें महायुगादि से हो वह तन्त्र और जिसमें किसी इष्टशक से- जैसे कलियुग के आरम्भ से हो वह 'करण' कहलाता हैं। मात्र ग्रहगणित की दृष्टि से देखा जाय तो इन तीनों में कोई भेद नहीं हैं। सिद्धान्त, तन्त्र या करण ग्रन्थ के जिन प्रकरणों में ग्रहगणित का विचार रहता हैं वे क्रमशः इस प्रकार हैं- 1. मध्यमाधिकार 2. स्पष्टाधिकार 3. त्रिप्रश्नाधिकार 4. चन्द्रग्रहणाधिकार 5. सूर्यग्रहणाधिकार 6. छायाधिकार 7. उदयास्ताधिकार8. शृङ्गोन्नत्यधिकार 9. ग्रहयुत्यधिकार 10. याताधिकार । ब्राह्मण, उपनिषद् पुराण एवं इतिहास आदि विविध प्राचीनतम ग्रन्थों में ज्योतिषं का विशद वर्णन मिलता हैं । अतः इसकी प्राचीनता एवं उपादेयता सिद्ध होती हैं । उन्हीं ग्रन्थों के आधर पर विश्व के अनेक आचार्यों ने ज्योतिषं सम्बन्धी अनेक ग्रन्थों को बनाकर इसका प्रचार और प्रसार किया, जिस ज्योतिषंज्ञान के बिना मानव जाति के नित्य नैमित्तिक कार्य ही नहीं चल सकते।
नोटः- 'इस लेख में दी गई जानकारी, सामग्री, गणना की प्रामाणिकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। सूचना के विभिन्न माध्यमों, ज्योतिषियों, पंचांग, प्रवचनों, धार्मिक मान्यताओं, धर्मग्रंथों से संकलित करके यह सूचना आप तक प्रेषित की गई हैं।
CONCLUSION- आज हमनें हमारे लेख-ज्योतिषं शास्त्र- प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रंम् Jyotish Shastra Pratyaksh Jyotishaam Shastram के माध्यम से जाना की ज्योतिष विद्या क्या हैं और ज्योतिष ज्ञान का उद्देश्य क्या हैं के बारें में विस्तृत रूप से जाना।
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