जैन धर्म में देवत्व की अवधारणा भाग- द्वितीय Jain Dharm Ke Devatv Kee Avadharana Bhag Dviteey...
जैन धर्म में देवत्व की अवधारणा भाग- द्वितीय Jain Dharm Ke Devatv Kee Avadharana Bhag Dviteey...
1. देवत्व प्राप्ति के उपाय ways to attain divinity:-
Jain Dharm Ke Devatv Kee Avadharana: देव कौन बन सकता हैं ? और कैसे बन सकता हैं ? ? इन प्रश्नों के संदर्भ में भी जैन आगामों में विशेष प्रकाश डाला गया हैं। "मनुष्य गति" और "तिर्यञ्चगति" के प्राणी "देवगति" में उत्पन्न हो सकते हैं। वहाँ देवत्व प्राप्ति के चार कारणों का उल्लेख किया गया हैं-1. सराग- अवस्था में संयम की साधना करना। 2. गृहस्थ- जीवन में अचार-संहिता का पालन करना। 3. तत्त्व- तत्त्व का सम्यक् अवबोध पायें बिना ही तपस्या करना। 4. तपस्या- मुक्ति की इच्छा बिना ही आत्मा को निर्मल बनाने वाला विशेष अनुष्ठान करना।
तिर्यञ्चगति में जन्म लेने वाले पशु-पक्षी आदि प्राणी चिन्ताशील नहीं होते उनको कभी कोई आकस्मिक अवसर मिलता हैं और वे विकास के सोपान पर चढ़ जाते हैं। मनुष्य चिन्तन और विवेक सम्पन्न प्राणी हैं, विकास की सारी सम्भावनाएँ उसमें निहित हैं फिर भी सब मनुष्य अपनी क्षमता का लाभ नहीं उठाते। वे काम भोगों में आसक्त होकर मनुष्यता से भी नीचें की ओर प्रस्थान कर देते हैं। ऐसे लोगों को प्रतिबोध देने के लिये एक व्यावहारिक उदाहरण दिया जाता हैं-
2.व्यावहारिक उदाहरण Practical example:-
Jain Dharm Ke Devatv Kee Avadharana:- एक बनिया था उसके तीन पुत्र थे। बनिये ने उन तीनों को एक-एक हजार "कार्षापण"- "ताँबे का एक प्राचीन सिक्का" देकर व्यापार करनें के लिये भेजा। एक निश्र्चित अवधि के बाद उन्हें लौट आना था। तीनों भाई गये, एक भाई ने व्यापार किया और सादगी से जीवन बिताया। उसका व्यापर चला मितव्ययी होने के कारण उसके पास पूँजी बढ़ती गयीं।
दूसरे भाई ने व्यापार किया उसे व्यापार में जितना लाभ मिलता वह भोजन, मकान आदि पर खर्च कर डालता, मात्र उसने मूल पूँजी को सुरक्षित रखा।
तीसरे भाई ने व्यापार नहीं किया- जो पूँजी उसके पास भी उसे खाने-पीने तथा व्यसनों में समाप्त कर दिया। इस उदाहरण को प्रतीक बनाने से निष्कर्ष यह निकलता हैं कि मनुष्य जीवन मूलभूत पूँजी हैं। आध्यात्म की साधना कर पवित्र जीवन जीने वाला उस पूँजी को बढ़ाता हैं, देवगति को प्राप्त होता हैं। जो विषय वासना में फँसता हैं, वह मूल पूँजी को खोता हैं, नरक और तिर्यञ्चगति को प्राप्त करता हैं। जो माध्यम प्रकार का आचरण कर पुनः मनुष्य जन्म को प्राप्त करता हैं वह मूल पूँजी को सुरक्षित रखता हैं। जैन-देवता नाम और आकर से अप्रतिबध्द हैं - मनुष्य देवताओं का उपासक हैं वह इष्ट-सिध्दि के लिये विध्रनिवारण के लिये और अपने मन संतोष के लिये उनका स्मरण करता हैं, पूजन करता हैं, मनौतियां मानता हैं और उन्हें प्रतिष्ठित करता हैं।
Jain Dharm Ke Devatv Kee Avadharana:-प्रश्न यह हैं कि- मनुष्य की मनुष्य की कल्पना का देव कैसा हैं ? वैदिक परम्परा में ब्रह्मा, विष्णु, और महेश प्रमुख देवों की भूमिका निभाते हैं। जैन समाज की परम्परा में देववाद की धारा दो दिशाओं में प्रवाहित हैं। 1.लौकिक देवों को नाम और आकर दोनों प्राप्त हैं। पर 2. लोकौत्तर देवों के साथ वह प्रतिबद्धता नहीं हैं। अप्रतिबध्ता के संकल्प को अभिव्यक्ति देते हुए कहा गया हैं- "भवबीजाक्ङरजनना रागाद्माः क्षयमुपागत यस्य।ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै"।
संंसार बीज को अकुंरित करने वाले दो तत्व हैं- "राग" और "द्वेष" जो व्यक्ति राग व द्वेष को क्षीण कर लेता हैं, उसे मेरा नमस्कार! हैं। उस व्यक्तित्व की पहचान ब्रह्मा! के रूप में हो, विष्णु! के रूप में हो, शिव! के रूप में हो या जिन के रूप में हो। नाम के प्रति ज्ञापनी उपासक का कोई विशेष आग्रह नहीं होता। उसकी दृष्टि में नमस्करणीय हैं- व्यक्ति की अर्हता और वह हैं वीतरागता तो हमनें जैन धर्म के देवत्व की अवधारणा को हमारें लेख के प्रथम व द्वितीय संस्करण के माध्यम से जाना मुझे आशा हैं कि- आपको मेरे इस लेख से एक अच्छी जानकारी प्राप्त हुईं होगी।
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