Jain Dharm Ke Devatv Kee Avadharana Bhag Dviteey...

हमनें हमारें लेख "जैन धर्म के देवत्व की अवधारणा भाग प्रथम" में जाना था कि मुक्त आत्मा के पास "अनंत आनन्द" "अनंत शक्ति" "अनंत ज्ञान" और "अनंत दृष्टि" होती हैं। जैन धर्म में अवधारणायें तीन प्रकार की होती हैं। प्रथम- "व्यवहारिक" द्वितीय- "वैज्ञानिक" तथा तृतीय- "शास्त्रीय" आदि-अब हम हमारें लेख के माध्यम से जानेंगे- Jain Dharm Ke Devatv Kee Avadharana Bhag Dviteey में..

Jain Dharm Ke Devatv Kee Avadharana

जैन धर्म में देवत्व की अवधारणा भाग- द्वितीय Jain Dharm Ke Devatv Kee Avadharana Bhag Dviteey...

जैन समाज में "इन्द्रभूति" गौतम भगवान महावीर के प्रथम शिष्य थे। उन्होंने भगवान से प्रश्न किया:- भन्ते! देव कितने प्रकार के होते हैं? भगवान ने उत्तर दिया- गौतम:- देव पाँच प्रकार के होते हैं- "भव्यद्रव्यदेव" "नरदेव" "धर्मदेव" "देवातिदेव" और "भावदेव"!

1. भव्यद्रव्यदेव-  जो मनुष्य या तिर्यच्ञ पच्ञेन्द्रिय जीव आगामी भव में देवयोनि में उत्पन्न होने वाले हैं वे जब तक वहाँ उत्पन्न नहीं होते भव्यद्रव्यदेव कहलाते  हैं संक्षेप में इनको भावी देव कहा जा सकता हैं।
2. नरदेव- जो जीव मनुष्य-योनि में उत्पन्न होते हैं वे चक्रवर्ती सम्राट होते हैं उनको चक्ररत्न प्राप्त होता हैं। उनके सामने नौ निधियों का आविर्भाव होता हैं। ऐसे शक्ति सम्पन्न और प्रभुता-सम्पन्न मनुष्येन्द्र या नरदेव कहलाते हैं।
3. धर्मदेव- "संयत, जितेंद्रिय, ब्रह्मचारी और गृहवास का परित्याग कर अप्रतिबध्द विहार करने वाले मुनी धर्मदेव होते हैं" ये स्वयं मोक्ष-धर्म की साधना करते हैं और जनता को धर्म का पर्थदर्शन देते हैं। साधना का परिपाक होने पर सिध्दि के शिखर पर आरोहण कर लेते हैं। उनकी सिध्दि की पहली कसौटी हैं अनन्त ज्ञान और दर्शन का आविर्भाव, अन्तहीन ज्ञान और दर्शन की उपलब्धि कर वे अर्हत् कहलाते हैं।
4. देवातिदेव- उनके लिये "जिन" शब्द का प्रयोग भी आता हैं। केवल ज्ञान की सम्पदा को प्रधान मानकर उन्हें केवली कहा जाता हैं। वे केवलज्ञान के आलोक में अतित, वर्तमान और भविष्य-तीनों कालों को जानते देखते हैं इसलिये उनको सर्वज्ञ और सर्वदर्श माना गया हैं। जो धर्म देव इस स्थिति तक पहुँच जाते हैं उन्हें देवातिदेव या देवाधिदेव कहा जाता हैं।
5. भावदेव- पाँचवें प्रकार मे वे देव आते हैं जो देवगति "नाम-गोत्र-कर्म" का वेदन करते हैं। लोक मे प्रचलित देव शब्द का प्रयोग इस कोटि के देवों के लिये ही होता हैं इसलिए वे भावदेव कहलाते हैं। उनको चार वर्गों मे विभक्त किया गया हैं-  1. भवनपति 2. वानव्यन्तर 3. ज्योतिष्क और 4. वैमानिक। भवनपति देव नीचें लोक मे रहते हैं, वानव्यन्तर और ज्योतिष्क देव तिर्यक् लोक में रहते हैं, ऊध्रर्व लोक में निवास करने वाले देव वैमानिक कहलाते हैं, "वैमानिक देव सब देवों में उच्चकोटि के देव हैं"। जैन शास्त्रों में इन सभी देवों का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता हैं।

1. देवत्व प्राप्ति के उपाय ways to attain divinity:-

Jain Dharm Ke Devatv Kee Avadharana: देव कौन बन सकता हैं ? और कैसे बन सकता हैं ? ? इन प्रश्नों के संदर्भ में भी जैन आगामों में विशेष प्रकाश डाला गया हैं। "मनुष्य गति" और "तिर्यञ्चगति" के प्राणी "देवगति" में उत्पन्न हो सकते हैं। वहाँ देवत्व प्राप्ति के चार कारणों का उल्लेख किया गया हैं-1. सराग 2. गृहस्थ- 3. तत्त्व-4. तपस्या मनुष्य चिन्तन और विवेक सम्पन्न प्राणी हैं, विकास की सारी सम्भावनाएँ उसमें निहित हैं फिर भी सब मनुष्य अपनी क्षमता का लाभ नहीं उठाते। वे काम भोगों में आसक्त होकर मनुष्यता से भी नीचें की ओर प्रस्थान कर देते हैं। ऐसे लोगों को प्रतिबोध देने के लिये एक व्यावहारिक उदाहरण दिया जाता हैं-

Jain Dharm Ke Devatv Kee Avadharana:- एक बनिया था उसके तीन पुत्र थे। बनिये ने उन तीनों को एक-एक हजार "कार्षापण"-  "ताँबे का एक प्राचीन सिक्का"  देकर व्यापार करनें के लिये भेजा। एक निश्र्चित अवधि के बाद उन्हें लौट आना था। तीनों भाई गये एक भाई ने व्यापार किया और सादगी से जीवन बिताया उसका व्यापर चला मितव्ययी होने के कारण उसके पास पूँजी बढ़ती गयीं। दूसरे भाई ने व्यापार किया उसे व्यापार में जितना लाभ मिलता वह भोजन, मकान आदि पर खर्च कर डालता मात्र उसने मूल पूँजी को सुरक्षित रखा। तीसरे भाई ने व्यापार नहीं किया- जो पूँजी उसके पास भी उसे खाने-पीने तथा व्यसनों में समाप्त कर दिया। इस उदाहरण को प्रतीक बनाने से निष्कर्ष यह निकलता हैं कि मनुष्य जीवन मूलभूत पूँजी हैं। आध्यात्म की साधना कर पवित्र जीवन जीने वाला उस पूँजी को बढ़ाता हैं, देवगति को प्राप्त होता हैं। जो विषय वासना में फँसता हैं, वह मूल पूँजी को खोता हैं नरक और तिर्यञ्चगति को प्राप्त करता हैं। जो माध्यम प्रकार का आचरण कर पुनः मनुष्य जन्म को प्राप्त करता हैं वह मूल पूँजी को सुरक्षित रखता हैं। जैन-देवता नाम और आकर से अप्रतिबध्द हैं - मनुष्य देवताओं का उपासक हैं वह इष्ट-सिध्दि के लिये विध्रनिवारण के लिये और अपने मन संतोष के लिये उनका स्मरण करता हैं, पूजन करता हैं, मनौतियां मानता हैं और उन्हें प्रतिष्ठित करता हैं।

CONCLUSION- आज हमनें हमारें लेख- Jain Dharm ke Devatv Kee Avadharana Bhag Dviteey के माध्यम से जाना कि -देव कितने प्रकार के होते हैं, देवत्व प्राप्ति के उपाय क्या हैं और इसके व्यावहारिक उदाहरण को आपने इस लेख के माध्यम से समझा।

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