Jain Dharm Ke Devatv Kee Avadharana Bhag Dviteey...
जैन धर्म में देवत्व की अवधारणा भाग- द्वितीय Jain Dharm Ke Devatv Kee Avadharana Bhag Dviteey...
जैन समाज में "इन्द्रभूति" गौतम भगवान महावीर के प्रथम शिष्य थे। उन्होंने भगवान से प्रश्न किया:- भन्ते! देव कितने प्रकार के होते हैं? भगवान ने उत्तर दिया- गौतम:- देव पाँच प्रकार के होते हैं- "भव्यद्रव्यदेव" "नरदेव" "धर्मदेव" "देवातिदेव" और "भावदेव"!
1. देवत्व प्राप्ति के उपाय ways to attain divinity:-
Jain Dharm Ke Devatv Kee Avadharana: देव कौन बन सकता हैं ? और कैसे बन सकता हैं ? ? इन प्रश्नों के संदर्भ में भी जैन आगामों में विशेष प्रकाश डाला गया हैं। "मनुष्य गति" और "तिर्यञ्चगति" के प्राणी "देवगति" में उत्पन्न हो सकते हैं। वहाँ देवत्व प्राप्ति के चार कारणों का उल्लेख किया गया हैं-1. सराग 2. गृहस्थ- 3. तत्त्व-4. तपस्या मनुष्य चिन्तन और विवेक सम्पन्न प्राणी हैं, विकास की सारी सम्भावनाएँ उसमें निहित हैं फिर भी सब मनुष्य अपनी क्षमता का लाभ नहीं उठाते। वे काम भोगों में आसक्त होकर मनुष्यता से भी नीचें की ओर प्रस्थान कर देते हैं। ऐसे लोगों को प्रतिबोध देने के लिये एक व्यावहारिक उदाहरण दिया जाता हैं-
Jain Dharm Ke Devatv Kee Avadharana:- एक बनिया था उसके तीन पुत्र थे। बनिये ने उन तीनों को एक-एक हजार "कार्षापण"- "ताँबे का एक प्राचीन सिक्का" देकर व्यापार करनें के लिये भेजा। एक निश्र्चित अवधि के बाद उन्हें लौट आना था। तीनों भाई गये एक भाई ने व्यापार किया और सादगी से जीवन बिताया उसका व्यापर चला मितव्ययी होने के कारण उसके पास पूँजी बढ़ती गयीं। दूसरे भाई ने व्यापार किया उसे व्यापार में जितना लाभ मिलता वह भोजन, मकान आदि पर खर्च कर डालता मात्र उसने मूल पूँजी को सुरक्षित रखा। तीसरे भाई ने व्यापार नहीं किया- जो पूँजी उसके पास भी उसे खाने-पीने तथा व्यसनों में समाप्त कर दिया। इस उदाहरण को प्रतीक बनाने से निष्कर्ष यह निकलता हैं कि मनुष्य जीवन मूलभूत पूँजी हैं। आध्यात्म की साधना कर पवित्र जीवन जीने वाला उस पूँजी को बढ़ाता हैं, देवगति को प्राप्त होता हैं। जो विषय वासना में फँसता हैं, वह मूल पूँजी को खोता हैं नरक और तिर्यञ्चगति को प्राप्त करता हैं। जो माध्यम प्रकार का आचरण कर पुनः मनुष्य जन्म को प्राप्त करता हैं वह मूल पूँजी को सुरक्षित रखता हैं। जैन-देवता नाम और आकर से अप्रतिबध्द हैं - मनुष्य देवताओं का उपासक हैं वह इष्ट-सिध्दि के लिये विध्रनिवारण के लिये और अपने मन संतोष के लिये उनका स्मरण करता हैं, पूजन करता हैं, मनौतियां मानता हैं और उन्हें प्रतिष्ठित करता हैं।
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